Maa
छुप छुप कर शबे ख्व़ाब क्यों आती है रोज़,
क्यूँ लड़ती झगड़ती नाज़ दिखाती छोड़ जाती है रोज़,
रहा फ़र्क नही ज्यादा है मेरे उस के दरमियाँ,
रूठ भी जाती वो अक्सर मान भी जाती है रोज़,
नशीला जाम इक भी क्यूं न मुझ को मयस्सर,
है हाथो में खाली प्याला चढ़ जाती है रोज़,
है बैचेनी कितनी दिल मे और कितने तन्हा हम,
जलते है शमा बन कर पिघल जाते है रोज़,
चाहता हूँ भौरा बन मे संग गुल के महकना,
गरजती सबा घटा सी छुप मै जाता हूँ रोज़,
वो ऋतू रानी बनकर गम कि बरखा करती है,
मै प्याला गम का लेकर घूंट लगाता हूँ रोज़,
मै प्रेम धून बन कर रहा रिश्ते बनाता,
सब आते जाते मिलते तन्हा तन्हा मै रोज़,
क्या पाया तुने संगदिल छत गिराकर इश्क़ कि,
मै कारीगर हूँ क़ाबिल घर बनाता हूँ रोज़,
ना ही आला दरजा मेरा ना ही छोटी मेरी सोच,
रहा आँचल मे माँ के मै! है राम-ओ-रहीम वही रोज़।।
============निलेश गौड़=============
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